Urdu Poetry : जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूं संभल के बैठ गए, तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की- मजरूह सुल्तानपुरी
हिंदी सिनेमा की दुनिया में एक महान गीतकार हुए, जिनका नाम है मजरूह सुल्तानपुरी. मजरूह का निधन 24 मई, साल 2000 में हुआ, लेकिन उनके गीत आज भी ज़िंदा हैं और जब-जब सुने जाते हैं, एक नया प्रभाव छोड़ते हैं. नजाने क्या बात थी उनके गीतों में, कि जो भी लिख दिया वो सुपरहिट हो गया. एक तरफ जहां मजरूह ने “हम हैं राही प्यार के हम से कुछ ना बोलिए”, “ओ हसीना ज़ुल्फ़ों वाली”, “छोड़ दो आंचल” और “पहला नशा” जैसे खूबसूरत गीत लिखकर करोड़ों दिलों में अपनी जगह बनाई, वहीं उनकी शायरियों ने भी लोगों के दिलों में अलग छाप छोड़ी. उनकी रचनात्मकता का चमत्कार उनके मशहूर गीतों से बहुत ऊपर है. उर्दू कविता की दुनिया में उनका नाम हमेशा मौजूद रहेगा. प्रस्तुत हैं मजरूह की कलम से निकले प्रभावशाली शेर…
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असरार उल हसन खान, जो कि पेशे से एक डॉक्टर थे और लोगों को दवाईयां उनकी नब्ज़ देख कर दिया करते थे, वे आगे चलकर शायर बन गए और बॉलीवुड को ऐसे नायाब गीत दिए, जो आज भी लोगों की ज़ुबान पर छाये हैं. ये वही डॉक्टर हैं, जिन्हें दुनिया ‘मजरूह सुल्तानपुरी’ के नाम से जानती है.
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1 अक्टूबर 1919 को सुल्तानपुर में जन्मे मजरूह को अरबी और फारसी भाषा में महारत हासिल थी. पिताजी को अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ाना पसंद नहीं था, इसलिए मजरूह की पढ़ाई मदरसे में हुई, आगे चलकर लखनऊ में यूनानी दवाईयों की ट्रेनिंग ली और बाद में हकीम बने, लेकिन आगे चलकर ये हकीम देश का बहुत बड़ा उर्दू कवि बन गया और हिंदी सिनेमा को ऐसे नायाब गीत दिए, जिनका कोई तोड़ नहीं.
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बॉलीवुड में मजरूह सुल्तानपुरी को फिल्म प्रोड्यूसर एआर करदार लेकर आए थे. पहले तो मजरूह को बॉलीवुड में काम करना पसंद नहीं था, ना ही उनकी ऐसी कोई इच्छा थी, क्योंकि उन दिनों फिल्मों में काम करना या फिर फिल्मों के लिए काम करना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन करदार के समझाने और ज़िगर मुरादाबी की नसीहत ने मजरूह का मन बदल दिया.
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जिगर मुरादाबादी मजरूह के करीबी दोस्तों में से एक थे, जिनके साथ उन्होंने कवि सम्मेलनों में साथ शिरकत की और मंचो पर भी धमाल मचाया था. ऐसा कहा जाता है कि मजरूह उनके कहे का हमेशा मान रखते थे.
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मजरूह के गीतों के बोल अक्सर प्यार, आवेश, और जीवन की तकलीफों को बयां करते थे. उनके शब्दों में एक खास तरह का नोस्टाल्जिया है, जो सुनते हुए किसी पुरानी दुनिया में ले जाकर खड़ा कर देता है, जैसे हम खुद उसका हिस्सा हों. अपने अद्वितीय काव्यात्मक क्षमता के साथ, सुल्तानपुरी ने भारतीय सिनेमा के इतिहास में अविस्मरणीय छाप छोड़ है, जिससे बड़ी कोई लकीर अब तक खींची नहीं जा सकी.
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मजरूह सुल्तानपुरी के गीत उस दौर में लिखे गए, जब हिंदी सिनेमा का सुनहरा युग चल रहा था. उन्होंने एसडी बर्मन, ओपी नय्यर, आरडी बर्मन, और शंकर-जयकिशन जैसे महान संगीतकारों के साथ मिलकर जितने भी गीत बनाए, वे सारे के सारे करोड़ों लोगों के दिलों में जाकर बस गए. उनके शब्दों में इंसानी भावनाओं को छूने की बेमिसाल क्षमता थी.
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फिल्मों, कविताओं, ग़ज़लों और शेरो-शायरी के अलावा, मजरूह सुल्तानपुरी सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और कमजोरों के अधिकारों का समर्थन करने के लिए कई प्रगतिशील लेखकों के आंदोलनों का हिस्सा भी बने और वहां सक्रिय भूमिका निभाई. अपनी कविताओं से उन्होंने एक क्रांति ला दी, जिसे पचा पाना लोगों के बस की बात नहीं थी.
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“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया…” ये मशहूर शेर भी मजरूह साहब की कलम से ही लिखा गया था, जो देश के उस हर व्यक्ति को याद है, जो शेरो-शायरी का शौक रखते हैं फिर साल चाहे कोई भी हो उम्र किसी की जो भी हो. जोश भरने के लिए इसका इस्तेमाल समय-समय पर कई लोगों ने किया है.
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